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पंचम अध्याय : गुण विवेचन व जैनाचार्य
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काव्य - विवेचना के प्रारंभिक काल से ही काव्य
गुणों का उल्लेख होता रहा है। भरतमुनि ने "माधुर्य" तथा "औदार्य" आदि का उल्लेख किया है तथा ओज का स्वरूप भी बतलाया है। प्रथम अलंकारवादी आ. भामह के पश्चात् तो गुणों के स्वरूप तथा संख्यादि विवेचन का युग ही आरम्भ हो गया था, किन्तु उस समय गुण तथा अलंकारों का स्वरूप विवेक नहीं हो पाया था । आ. दण्डी के गुप निरूपण में भी गुप तथा
अलंकार का भेद स्पष्ट नहीं हुआ था। इसी लिये भट्टोदभट ने गुण तथा अलंकारों के भेद को परंपरागत ही बतलाया था। उनके मत में ग्रुप तथा अलंकार में कोई भेद नहीं है।' लौकिक गुण तथा अलंकारों में तो यह भेद किया जा सकता है कि हारादि अलंकारों का शरीरादि के साथ संयोग
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सम्बन्ध होता है, और शौर्यादि गुणों का आत्मा के साथ संयोग नहीं अपितु समवाय सम्बन्ध होता है किन्तु काव्य मैं तो ओज आदि
गुण तथा अनुप्रास, उपमा आदि अलंकार दोनों की ही समवाय सम्बन्ध
से स्थिति होती है, इसलिये काव्य मेंउनके भेद का उपपादन नहीं किया
1. उद्भटादिभिस्तु गुणालंकाराणां प्रायशः साम्यमेव सूचितम। अलंकार सर्वस्व, पृ. 19