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पर निरर्थक आदि शब्द
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प्रतिपाद्य विषय, व्यंग्य, वाच्य व प्रकरणादि की विशेषता के कारण दोषं कहीं - कहीं न गुण होते हैं और न दोष 2 तथा कहीं वक्ता आदि की विशेषता होने पर दोष गुप हो जाते हैं। 3
अर्थ दोष नहीं होते हैं। इसी प्रकार वक्ता,
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1.
आ. नरेन्द्रप्रभसूरि का कथन है कि वक्तादि के औचित्य ते दोष कहीं - कहीं गुण भी हो जाते हैं।" उदाहरणस्वरूप में उन्होंने असंस्कार, निरर्थक, भग्नप्रक्रम, अक्रम, न्यूनता, संकीर्णता, गर्भितता, सन्धिकष्टता, पतत्प्रकर्षता, व्यक्तप्रतिद्धि पुनरूक्त पदन्यास पदाधिक्य, ग्राम्यता, तन्दिग्धता, दुःश्रवता, अप्रतीत, अयोग्यादि, अप्रयुक्त और निहतार्थ, अश्लील, संवीत, विरूद्धमति और क्लिष्टता इन शब्दोषों की गुफ्त व
"नानुकरणे । अनुकरणविषये निरर्थकादयः शब्दार्थदोषा न भवन्ति । उदाहरण प्रावैदर्शितम् । "
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काव्यानु,
2.
3/8, वृत्ति, पृ. 273 "वक्त्राद्यौचित्ये च । वक्तुप्रतिपाद्यव्यं यवा च्यप्रकरपादीनां महिम्ना न दोषो न गुणः । तथादाहतम्" ।
वही, 3/10, वृत्ति, पृ. 273 3. "क्वचिद् गुणः । वक्त्राद्यौचित्ये क्वचिद्गुण एव तथैवदोहृतम् । "
वही, 3/90, कृ. पृ. 273
4. अलंकारमहोदधि 5/17 5. वही, पृ. 166-175
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