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था - "परिहरति रतिं मतिं लुनीते ... । इत्यादि में रति का परियण आदि रूप विभाव श्रृंगार की तरह करूपादि में भी हो सकते हैं इसलिये उनके अंगार के प्रति भाव होने में संदेह है।' अत: यहाँ संदिग्धता रूप वाक्य दोष है। जबकि मम्मट ने यहाँ कामिनी रूप विभाव की प्रतीति कष्टपूर्वक होने से विभाव की कष्टकल्पना रूप रसदोष माना है, जो नाट्यदर्पकार के मत मे संभव नहीं है।
आचार्य नरेन्द्रप्रभतरि ने आ. मम्मट सम्मत ही दस रसदोषों का उल्लेलं किया है।
___इस प्रकार रस - दोषों पर समग रूप से विचार करने पर यह प्रतीत होता है कि ये जैनाचार्य आचार्य मम्मट से प्रभावित है। आचार्य हेमचन्द्र ने यद्यपि 8 रसदोषों का विवेचन किया है तथापि आ. मम्मट ने स्वीकृत रसादि की स्वशब्दवाच्यता एवं प्रतिकूल दिभावादि के गहप रूप - रसदोषों को भी अस्वीकार करने में कोई कारण प्रस्तुत नहीं किया है। अपितु इन दो दोषों का विवेचन भी किया है। रामचन्द्रगुपचन्द्र ने 5 रसदोषों को स्वीकार करते हुए भी प्रथम भेद अनौचित्य में ही अन्य चार रसदोषों का अन्तर्भाव माना है तथा इस प्रकार उन्होंने ध्वन्यालोककार
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• वही, पृ. 329 - अलंकारमहोदधि, पृ. 5/18-20