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ही अन्तर्गत आ जाते है, किन्तु मात्र सहदयों को अनौचित्य के अनेक भेदों का ज्ञान कराने के लिए सोदाहरप प्रतिपादन किया है।'
रामचन्द्र - गुपचन्द्र का कथन है कि कुछ लोग जो व्यभिचारिभाव, रस तथा स्थायिभावों के नामत: गहप (स्वशब्द वाच्यत्व ) को भी रसदोष मानते हैं, यह उनके मत में उचित नहीं है क्योंकि व्यभिचारिभाव आदि के वाचक अपने पदों (नामों ) का प्रयोग होने पर भी विभावादि की पुष्टि होने पर रस की अनुभूति होती ही है। उसमें कोई बाधा नहीं होती है। इसलिये व्यभिचारिभाव की स्वशब्द - वाच्यता कोई दोष नहीं है। यथा'इरादुत्सुक - मागते विवलितं...।" इत्यादि उदाहरण में उत्सुकता आदि रूप व्यभिचारिभावों के स्वशब्दवाच्य होने पर भी रस की उत्पत्ति होने से यह व्यभिचारिभावादि की स्वशब्दवाच्यता दोष नहीं होता।
___आगे वे लिखते हैं कि इसी प्रकार दो रतों में समान रूप से पाये जाने वाले विभावादि वाचक पदों से किसी एक नियतरत के विभावादि की कठिनता से प्रतीति भी (जिसे कि मम्मटादि ने रसदोषों में गिनाया है वह रसदोष न होकर) संदिग्धत्वरूप वाक्यदोष ही है।'
1. हि नाट्यदर्पप, पु, 328 2. केचित्त व्यभिचारि - रस - स्थायिनां स्वशब्वाच्यत्वं रसदोषमाहः, तयुक्तम्। व्यभिचार्यादीनां स्ववाचकपद प्रयोगऽपि विभावपुष्टो।
हिन्दी नाट्यदर्पण, पृ. 328 उभ्य रस साधारप विभावपदानां कष्टेन नियतविभावाभिधायित्वाधिगमोदापि संदिग्धत्वलक्षपो वाक्यदोष एव ।
वही, पृ. 329