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आशय यह है कि गुप मुख्यतः रस के ही धर्म हैं, गौफरूप से वे उस रस के उपकारक शब्द और अर्थ के कहे जाते हैं। यहाँ पर गुण व दोष का रसाश्रयत्व सिद्ध करते हुए हेमचन्द्राचार्य लिखते हैं कि गुप तथा दोष का रसाभ्रित होना अन्वय व्यतिरेक के विधान से भी सिद्ध है। जहाँ दोष रहते हैं वही गुप भी रहते हैं और वे दोष रसविशेष में रहते हैं, शब्द और अर्थ में नहीं। यदि वे शब्द और अर्थ के दोष होंगे तो वीभत्स रस में कष्टत्वादि तथा हास्यादि रसो में अश्लीलत्वादि दोष गुप नहीं हो पाएंगे। क्योंकि ये अनित्य दोष हैं, कमी दोष रहते हैं, कभी नहीं भी रहते और कभी-कभी गुण भी हो जाते हैं। जिस अंगी रस के वे दोष होते हैं उसके अभाव में वे दोष नहीं रह जाते, उसके रहने पर दोष रहते हैं। इस प्रकार अन्वय व्यतिरेक के द्वारा गुण और दोष का रसाश्रयत्व ही दि होता है, शब्दार्था प्रितत्व नहीं। गौपरूप में भले ही वे गुप और दोष शब्दार्थ के कहे जायें किन्तु वास्तविक रूप में वे रसा श्रित धर्म हैं।'
हेमचन्द्राचार्य ने अंग के आश्रित रहने वाले धर्मो को अलंकार
कहा है। तथा अपनी विवेक टीका में पूर्वाचार्यों के विचारों का खण्डन
I. "रसाश्रयत्वं च गपदोषयोरन्वयव्यतिरेकानुविधानात।.... यदि हि
तयोः त्यस्ता वीभत्सादौ कष्टत्वादयो गुपा न भवेयुः, हास्यादौ चाशलीलत्वादय:। ... रस एवाश्रयः।
वही, 1/12 वृत्ति 2- अइ.गा पिता अलंकाराः ।
वही, 1/13