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त्यक्तपुनरात्तत्व - यथा -
"लग्नं रागावृतां गया ----- यहाँ "विदितं तेऽस्तु" इस प्रकार उपसंहार होने पर भी तेन” इत्यादि के द्वारा पुनः गृहप करने ते दोष है।' इसके गुप हो जाने का उदाहरप "शीतांशोरमृतच्छटा यदि -- इत्यादि उन्होंने प्रस्तुत किया है।
1158 परिवृत्त - नियम - "परिवृत्तो विनिमयितौ नियमा नियमों सामान्यविशेषो विध्यनुवादौ च यत्र । तदावस्तत्वम्।
जिसका नियमपूर्वक कहना उचित हो उसे बिना किसी नियम के कह देने में उक्त दोष होता है। यथा -
यत्रानुल्लिखितार्थमद निखिलं निपिमेत दिधेरूत्कर्षप्रतियोगिकल्पनमपि न्यक्कारको टिः परा । भाताः प्रामभृतां मनोरथगतीरूल्लंघ्य यत्सम्पदस्तस्याभातमणीकृताश्मनु मपेरधमत्वमेवो चितम।।2
यहाँ छाया मात्र से मपि बने हुए पत्थरों में उस मपि को पत्थर रूप में ही गफ्ना करना उचित था, यह नियम होने पर उसका आभास यह अनियम कहा है, अतः परिवृत्तनियम दोष है। मम्मट ने इसे सनियम परिवृत्त
कहा है।
• काव्यानुशासन, पृ, 267 है. वही, पृ, 271