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म
कहीं अवसर के बिना ही रस का विच्छेद कर देना, यथा - महावीरचरित में राम व परशुराम के मध्य वीर रस के पूर्ण प्रवाह पर आ जाने पर राम का "कङ्कपमोचनाय गच्छामि
यह कथन।
प!
कहीं उत्तम, अधम तथा मध्यम प्रकृतियों का विपरीत रूप में वर्पन (प्रकृति - विपर्यय नामक रसदोष है) ।
ड.४ मध्य तथा अधम प्रकृति के नायकादि के साथ अगाम्य अर्थात्
शुद्ध श्रृंगार, दीर, रौड़ तथा शांतरस के प्रकर्ष का वर्पन ।
चहूँ
उत्तम प्रकृतियों में भी दिव्य पात्रों के श्रृंगार का वर्णन करना, माता - पिता के श्रृंगार रस के वर्पन के समान होने से अनुचित
है।
४६
देवताओं को छोड़कर उत्तम प्रकृतियों में भी तुरंत फल देने वाले क्रोध, स्वर्ग या पाताल में गमन, समुद्रलंघनादि के उत्साह का वर्पन भी प्रकृति व्यत्यय नामक रसदोष है।
च
धीरोदात्त, धीरोदुत, धीरललित व धीरशांत रूप उत्तम प्रकृतियों में भी वीर, रौद्र, श्रृंगार तथा शांत रसों का वर्णन न करना अथवा विपरीत वर्णन प्रकृति-विपर्यय नामक रस-दोष होता है और मध्यम तथा अधम प्रकृतियों में तो इन धीरोदात्तादि में