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जैनाचार्य हेमचन्द्रानुसार मुक्तक आदि अनिबद्ध हैं।' आनंदवर्धन सम्मत अनिबटु के उक्त छ : मेद इन्हें भी मान्य हैं। हेमचन्द्र ने वाक्यसमाप्ति को ध्यान में रखकर प्रत्येक का लक्षप करते हुए लिखा है कि एक छन्द में वाक्य समाप्त होने पर मुक्तक, दो में संदानितक, तीन में विशेषक, चार में कलापक, तथा पांच से चौदह पर्यन्त छन्दों में वाक्य समाप्त होने पर कुलक कहलाता है। अपने तथा दूसरे के द्वारा रचित सूक्तियों का संगह कोश है।' वाग्भट द्वितीय पांच से बारह छन्दों पर्यन्त वाक्य समाप्त होने पर कलक मानते हैं। शेष भेदों के लपप हेमचन्द्रसम्मत हैं।
ध्वनि के आधार पर काव्य-भेदः
आ. आनन्दवर्धन द्वारा ध्वनि की स्थापना के पश्चात ध्वनि को आधार मानकर भी काव्य-भेदों की गपना होने लगी। सर्वप्रथम स्वयं ध्वनिकार ने तीन भेद किए - ध्वनिकाव्य, गुपीभूत-व्यंग्य तथा
1. काव्यानुशासन, 8/10 2. काव्यानुशासन, 8/12
वही, 8/13 4. काव्यानु, वाग्भट, पृ. 16 5. यत्रार्थ : शब्दो वा तमर्थमुपसर्जनीकृतस्वार्थो। __व्यंङ्क्तः काव्यविशेष: स ध्वनिरिति तरिभि: कथित :।।
ध्वन्यालोक, 1/13 6. प्रकारोऽन्यो गुपीमतव्यंग्य : काव्यस्य दृश्यते। यत्र व्यंग्यान्वये वाच्यचारूत्वं स्यात् प्रकर्षवत्।।
वही, 3/35