________________
75
( महिला सहभारिते तव हृदये सुभग सा अमान्ती। अनुदिनमनन्यकांग तन्वपि तनयति।।)
यहाँ पर "वह नायिका अपने धीप अंगों को भी क्षीप बना रही है" यह वाच्यार्थ अथवा 'अत्यधिक कृधाता से कहीं वह मृत्यु को न प्राप्त कर ले, अत: दुर्जनता को छोड़कर उसको समय रहते मना लो' यह व्यंइल्यार्य प्रधान है, इस बात का निश्चय न हो पाने से यह संदिग्ध प्राधान्य व्यंग्य का उदाहरप माना गया है।
गहुँ तुल्य प्राधान्य - जहाँ पर व्यंइग्यार्य एवं दाच्यार्य दोनों की समान प्रधानता होती है, वहाँ तुल्य प्राधान्य नामक मध्यम काव्य होता है। यथा -
बाहमापातिकमत्यागो भवतामेव भतये। जामदग्न्यस्तथा मित्रमन्यथा दुर्मनायते।।'
यहाँ पर (जूद हो जाने पर)परशुराम "सभी क्षत्रियों की भांति राक्षतों का संहार कर देंगे इस व्यंइ-मार्य एवं "बुद्ध हो जायेंगे" इस वाच्यार्य की समान प्रधानता है।
I. काव्यानुशासन, पृ. 156