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•पापियों के विनाश में लगे हैं" इस विपरीत अर्थ का भी बोधक होने से
व्याहतार्थ दोष है।
148 अलक्षप : जो पद व्याकरपविरुद्ध हो उसे "अलक्षप दोष कहते हैं। यथा - "मानिनी स्त्रियों के मान-मर्दन करने वाले चन्द्रमा की विजय हो ।
ययेन्दुर्विजयत्यताह । यहाँ विजयति पद का प्रयोग व्याकरप - शास्त्र के विरुद्ध होने से अलक्षप दोष है।
15६ स्वसंकेतप्रक्लुप्तार्य : जहाँ किसी प्रसिद्ध एवं सर्वविदित अर्थ के विपरीत कवि स्वकल्पित अर्थ में किसी पदविशेष को प्रयुक्त करता है। यथा - यह पर्वत पुष्पराशिमण्डित वानरध्वज अर्जुन के वृक्षों से सुशोभित हो रहा
है।
"वानरध्वज' शब्द साधारपतया पाण्डुपुत्र अर्जुन के लिये ही रूद है, किन्तु यहाँ कवि ने उसे स्वकल्पित अर्जुन नामक वृक्ष के अर्थ में प्रयुक्त किया है। अतएव यहाँ :: "स्वसंकेतप्रक्लुपतार्य' नामक दोष है।
868 अप्रसिद्ध : अप्रसिद एवं अप्रचलित अर्थ में किसी पद को प्रयुक्त करने से अप्रसिद्ध नामक दोष उत्पन्न होता है। यया - हे राजेन्द्र । आप की सुकीर्ति चारों समुद्रों तक जा चुकी है। राजेन्द्र भवतः कीर्तिश्चतुरो हन्ति वारिधीन।
• वाग्भटालंकार, 2/11 2. वही, 2/12 ॐ वही, 2/13