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१६ विसन्धि - पदों के मेलरूप सन्धि-कार्य से द्रव और द्रव्यों की तरह
स्वरों का समवाय सम्बन्ध सन्धि है अथवा कपाटों की तरह स्वरों और व्यञ्जनों का प्रत्यासक्तिमात्र या संयोगमात्ररूप सन्धि है। उस सन्धि का विश्लेषता, अश्लीलता व कष्टता ते विरूपता को प्राप्त हो जाना विसन्धि है।
जहाँ सन्धि न करू इस प्रकार स्वेच्छा से एक बार भी सन्धि नहीं की जाती अथवा प्रकृतिवद भाव प्राप्त होने पर बार - बार सन्धि कार्य नहीं होता है, वहां विश्लेष के कारप वैरूप्य होता है।
जहां पदों की सन्धि करने पर उनसे बीडा, जुगुप्सा और अम इ. लार्य की प्रतीति हो वहाँ अश्लीलल दोष होता है।'
इसी प्रकार जहाँ सन्धि होने पर पदों के पारुष्य का बोध होता है, वहाँ कष्टत्व दोष होता है।
आ. हेमचन्द्र के अनुसार वक्तादि के औचित्य से दुर्वचकादि में वक्ष्यमाप होने से दोष नहीं होता। जैसा कि कहा गया है - "शुकस्त्रीबालापां मुखतंस्कारसिदये। प्रहासातु च गोष्ठीषु वाच्या दुर्वचकादयः ।।
1. वही, पृ. 20 2. वही, वृति, पृ. 20 3 वही, वृत्ति , पृ. 201-202 + वही, वृत्ति , पृ. 202 5 वही, पृ. 202