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गर्मितता - एक वाक्य के मध्य में अन्य वाक्य का प्रविष्ट हो जाना।
यथा -
परापराकरनिरतर्जनैः सह संगतिः । वदामि भवतस्तत्त्वं न विधेया कदाचन ।।।
यहाँ तृतीयपाद अन्यवाक्य के मध्य में प्रविष्ट होने से दोष है। इसके गुप होने का उदाहरप आ, हेमचन्द्र ने "दिडरमातं इप्टा" इत्यादि प्रस्तुत किया है।
{128 भग्नप्रक्रमत्व - प्रस्तुत का भंग होना भग्नप्रकृमत्व दोष है। जैसे -
एवमुक्तो मन्त्रिमुख्यैः पार्थिवः प्रत्यभाषत ।'
यहाँ पर "उक्त : इस पद का प्रयोग होने के पश्चात् "प्रत्यभाषत" पद का प्रयोग हुआ है। अतः प्रकृति के भड़. (वन से भाष)हो जाने पर मग्नप्रक्रमत्व दोष है। प्रत्यभाषत के स्थान पर प्रत्यवोचत कहना उचित था।
8138 अनन्वितता - पदार्थों का परस्पर असम्बद्ध होना अनन्वितता दोष है।
यथा -
तरनिबद्धमुष्टे :कोशनिषण्पत्य सहलमलिनस्य । कृपपत्य कृपापस्य च केवलमाकार तो भेदः ।।
1. वही, वृत्ति , पृ. 215 - वही, वृत्ति , पृ. 216 3 वही, वृत्ति , पृ. 216 + वही, पृ.
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