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"देव स्वस्तिवयं” इत्यादि और "फुल्लुक्करं कलमकरसमं वहन्ति" इत्यादि
प्रस्तुत किये हैं।
यथा
साथ
जैसे
शास्त्रमात्रप्रतिदु पददोष,
यहाँ ' देवत' शब्द पुल्लिंग में लिंगानुशासन में ही प्रसिद्ध है। अतः दोष है। अथवा “सम्यग्ज्ञानमहाज्योति" इत्यादि मैं आशय शब्द वासना के पर्याय रूप में योगशास्त्र में ही प्रसिद्ध है। इसी प्रकार से धातुपाठ और अभिधानकोश में प्रसिद्ध पदों के उदाहरण भी दिये हैं। इनके कहीं पर गुण होने का उदाहरण "सर्वकार्यशरीरेषु" इत्यादि तथा श्लेष में उसके न गुण होने और न ही दोष होने का उदाहरण "येन ध्वस्तमनोभवेन इत्यादि
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यथाऽयं दारुणाचरः सर्वदैव विभाव्यते ।
तथा मन्ये दैवतोऽस्य पिशाचो राक्षसोऽथ वा ।।
साथ प्रस्तुत कर दिये हैं।
शास्त्रमात्र प्रतिद्ध वाक्यगतदोष,
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तस्याधिमात्रोपायस्य तीव्रसंवेगताजुषः ।
दृढभूमिः प्रियप्राप्तो यत्नः सफलितः सरवे ॥12
1. काव्यानुशासन, पृ. 227 22 वही, पृ. 229