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यहाँ पूर्वाई में असमस्तपदी वैदर्भी तथा उत्तरार्दु में समस्तपदी गौडी रीति का प्रयोग होने से रीतिभाट - दोष है।
178 यतिलष्ट - जिस वाक्य के पद के मध्य में ही यतिभड. हो जाय
उसमें यतिमष्ट दोष समझना चाहिये। यथा - "नमस्तत्म जिन - - स्वामिने सदा नेमयेऽहते।' (उन अर्हत नेमिनाथ जिनेन्द्रदेव को सदा नमस्कार हो) यहाँ "जिनस्वामिने यह पूरा पद है, अतः इसके पश्चात ही यति होनी चाहिये थी, किन्तु "जिनस्वामी' के पश्चात ही पद के मध्य में यति होने से यतिमष्ट दोष है ।
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असतिक्रया - जिस वाक्य में कोई क्रियापद ही न हो उसमें "असत्किया' नामक दोष होता है। यथा - "यथा सरस्वती पुष्पैः श्रीखण्डेसपैः स्तवैः ।। 2 (पुष्पों से, श्रीचन्दन से, केशर से, स्तोत्रों से सरस्वती की पूजा करता हूँ)। यहाँ "अर्चयामि' इस उचित क्रिया के अभाव में असत्क्रिया दोष है।
हेमचन्द्राचार्य ने 13 प्रकार के वाक्य - दोषों का उल्लेख किया है - (I) विसन्धि, 12) न्यूनपदता, (3) अधिकपदता, (4) उक्तपदता, (5) अयानस्थपना, (6) पतत्प्रकर्षता, (7) समाप्तपुनरात्तता, (8) अविसर्गता, (१) हतवृत्तता, (10) संकीर्पता, (II) गर्मितता, (12) भग्नपकमता और (13) अनन्वितता ।
• वही, 2/25 - वही, 2/26 3 काव्यानुशासन 3/5