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यहाँ "ज काचिन्न जहाँ इस प्रकार प्रयोग करना उचित था।'
168 पतत्प्रकर्ष - जहाँ पर क्रमशः उत्कर्ष का हाप्त हो जाता है वहाँ
पतत्प्रकर्ष नामक दोष होता है।
यथा
कःक:कुत्र न घुर्धरायितधुरीघोरो पुरेत्करः क :क :कं कमलाकरं विकमलं कर्तुं करी नोधतः। के के कानि वनान्यरण्यमहिषा नोन्मलयेयुर्यतः, सिंहीस्नेहविलासबदुवसतिः पञ्चाननो वर्तते।।
यहाँ कम से अनुप्रास की घनता आवश्यक है। सूकर की अपेक्षा सिंह के प्रतिपादन में अधिकतर कठोरवर्पता होनी चाहिए किंतु ऐसा न होने से उक्त
दोष है।
उक्त दोष के गुप होने का उदाहरप आ. हेमचन्द्र ने 'प्रागपाप्त - निशुम्म' इत्यादि प्रस्तुत किया है जिसमें क्रोध का अभाव होने पर प्रतत्प्रकर्ष नहीं है।
समाप्तपुनरात्त - जहाँ पर का, किया, कर्म आदि के सम्बन्ध से वाक्य की समाप्ति हो जाती है और पुनः उस वाक्य से संबंधित अन्य पदों का प्रयोग कर दिया जाता है तो वहाँ समाप्तपुनरात्त
1. वही, वृत्ति , पृ. 210 2 वही, वृत्ति , पृ. 213
3. वही, वृत्ति , पृ.