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वाक्य दोष :
वाक्य दोषों को प्रायः सभी आचार्यों ने समानरूप से स्वीकार
किया है। आचार्य मम्मट ने 21 प्रकार के वाक्यदोषों का विवेचन किया है18 प्रतिकूलवर्षता, 828 अपहुतविसर्गता, 838 लुप्तविसर्गता, 848 विसंधि, {58 हतवृत्तता, 868 न्यूनपदता, 878 अधिकपदता, १88 कथितपदता,
।। अर्दान्तरैकवाचकता, 8128
१११ पतत्प्रकर्ष, 8108 समाप्तपुनरात्तता अभवन्मतसम्बन्ध, 8 138 अनभिहितवाच्यता, 8148 अस्थानपदता, 8 158 अस्थानसमासता, 8168 संकी र्पता, 8178 गर्भितता, 8188 प्रसिद्धि - विरोध, 198 भग्नप्रक्रमता 8208 अक्रमता और 8218 अमतपरार्थता ।
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जैनाचार्य वाग्भट
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प्रथम ने 8 वाक्य दोषों का उल्लेख किया है
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१। खण्डित, 828 व्यस्तसम्बन्ध, 838 असम्मित,
848 अपक्रम, 858 छन्दोभ्रष्ट, 68 रीतिभ्रष्ट, 878 यतिभ्रष्ट, और 888 असत्क्रिया क्रिया पद रहित हूँ 2 इनके लक्षण इस प्रकार हैं :
1. काव्यप्रकाश, 7/53-55
2. वाग्भटालंकार, 2/17 3. वही, 2/18
१।४ खण्डित एक वाक्य के अन्तर्गत अन्य वाक्यांश के आ जाने से प्रथम वाक्य में जहाँ विच्छेद उत्पन्न हो जाता है, वहाँ "खण्डित" नामक दोष माना जाता है। यथा " वे जिन स्वामी जिनकी स्तुति सदैव
इन्द्र भी करते रहते हैं, आप लोगों की रक्षा करें। यहाँ जिनकी स्तुति इन्द्र भी करते हैं, इस वाक्य के मध्य में प्रवेश करने से वण्डित दोष है।