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आचार्य नरेन्द्रप्रभसरि ने तीन पद दोषों का विवेचन किया है18 असंस्कार व्याकरप संस्कार सहित, 28 असमर्थ एवं 33 अनर्थक ।' इनके लक्षप इनके नाम से ही स्पष्ट हैं।
___आचार्य वाग्भट द्वितीय ने सोलह शब्ददोषों का उल्लेख किया है, उनके अनुसार ये शब्द-दोष पद और वाक्य दोनों में समान रूप से पाये जाते हैं। ये इस प्रकार है - । निरर्थक, 323 निर्लक्षप, 38 अश्लील, 148 अप्रयुक्त, 858 असमर्थ, 168 अनुचितार्थ, 178 अतिकटु, 88 क्लिष्ट, ३१ अविमृष्टविषयांश, 108 विदबुद्धिकृत, | नेयार्य, 312 निहतार्थ, 8138 अप्रतीत, 148 गाम्य, 3158 संदिग्ध, 168 अवाचक ।
ये सोलह शब्द - दोष वे ही हैं जिन्हें मम्मट ने केवल पद - दोष माना है। इनके लक्षप इस प्रकार है -
।
निरर्थक : प्रकृतानुपयो गि निरर्थ क शब्द दोष कहलाता है।'
28 निर्लक्षप : आचार्य मम्मट के च्युतसंस्कृति नामक दोष के स्थान पर
वाभट द्वितीय ने निर्लक्षप नामक दोष माना है। इन दोर्षों में अन्तर यह है
कि च्युतसंस्कृति दोष वहीं पर होता है जहाँ व्याकरण विरूद्ध पद का प्रयोग
1. अलंकारमहोदधि, 5/2/पूर्वार्द 2 काव्यानुशासन वाग्भट, पृ. 19 3 वही, पृ. 19