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उचित विषय में नियंत्रित होती है, किसी में अन्य प्रकार से होती है। उनमें से कोई कोई ही चित्तवृत्ति पुरुषार्थोपयोगिनी होने से उपदेश्य होती है। उसी के विभाग के कारण ही उत्तम, मध्यमादि प्रकृति का व्यवहार प्रापियों में होता है।'
___आ. हेमचन्द्र नौ प्रकार के स्थायिभावों का स्वरूप इस प्रकार
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रति - स्त्री - पुरूषो में परस्पर आशाबन्धवाली रति कहलाती है।
हास - चित्त का विकास हास है। शोक -
वैर्यता शोक है। क्रोध - तेक्षण्यप्रबोध क्रोध है। उत्साह - संरम्भ स्येयको उत्साह कहते हैं। भय- - विकलता ही भय है। जुगुप्सा - अंगादि का संकोच ही जुगुप्सा है। विस्मय - चित्त का विस्तार विस्मय है। शम - तुष्पा का क्षय ही शम है।
__ ये लक्षप अतिसंक्षिप्त रूप से ही प्रस्तुत किये गये हैं जो कि मात्र पर्यायवाची ही प्रतीत होते हैं, किन्तु अपने आप में परिपूर्ण है। आचार्य
1. काव्यानुशासन, वृत्ति, पृ. 124-125