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इन सात्त्विक भावों में अनुभावत्व भी है, क्योंकि अनुभावों के सदश ये भी नायक - नायिका दि आश्रय के विकार हैं। तथापि इनकी
गणना पृथक् की गई है -
जैनाचार्य हेमचन्द्र ने सात्त्विक भाव का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ प्रस्तुत करते हुए भरत के मन्तव्य का अनुकरप किया है। वे लिखते हैं कि "सीदत्यस्मिन् मन इति व्युत्पतेः सत्त्वगुपोत्कर्षात्साधुत्वाच्च प्रापात्मकं वस्तु सत्त्वस तत्र भवाः सात्त्विका: अर्थात इसमें मन खिन्न होता है तथा सत्त्वगुणों के उत्कृष्ट और श्रेष्ठ होने से प्रापात्मक वस्तु सत्व है, उससे उत्पन्न होने वाले सात्त्विक भाव कहलाते हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने भरतमुनि सम्मत आठ प्रकार के सात्त्विक भावों का ही विवेचन किया है। आ. रामचन्द्रगुपचन्द्र ने भी सात्विक भाव के पूर्वोक्त आठ भेद ही स्वीकार किये हैं किन्तु आठ भेदों को अनुभाव कहा है। तथा इनका उल्लेख अनुभावों के प्रसंग में किया है। नरेन्द्रप्रभसरि ने सात्त्विक भाव के हेमचन्द्र सम्मत उक्त आठ भेद ही स्वीकार किए हैं। वाग्भट द्वितीय ने भी आठ सात्त्विक भावों की गपना की है।
1. जैनाचार्यो काअलंकारशास्त्र में योगदान, पृ. 134 2. काव्यानुशासन, 2/53 वृत्ति। 3 वही, 2/54 + हि नाट्यदर्पप, 3/45 5 अलंकारमहोदधि 3/30 6. काव्यानुशासन - वाग्भट, पृ. 58