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भिन्नदत्त, वितन्धि, देशविरोधी, कालविरोधी, कलाविरोधी, लोक विरोधी, न्यायविरोधी, आगमविरोधी, प्रतिज्ञाहीन, हेतुहीन और
टूटान्तहीन ।।
इस प्रकार आचार्य भरत की तुलना में भामह ने काव्य - दोषों की संख्या में वृद्धि की है, जबकि मामहाचार्य के ही समकालीन आचार्य दण्डी ने मात्र दस दोषों का ही विवेचन किया है जिसका भामह ने पहले ही प्रतिपादन कर दिया था। दण्डी के दस दोष है - अपार्थ, व्यर्थ, एकार्थ, ससंशय, अपक्रम, शब्दहीन, यतिमष्ट, भिन्नवृत्त, विसन्धि, और देश - काल - कला - लोक - न्याय - आगम विरोधी । अतः दोष-प्रसंग में दण्डी ने कोई नवीन बात नहीं कही है। ध्वन्यालोककार आनन्दवर्धन ने श्रुतिहटत्व, ग्राम्यत्व और असभ्यत्व इन तीन दोषों का विभिन्न प्रसंगों में नामोल्लेख किया है तथा पाँच रत - दोषों का भी विवेचन किया है, किन्तु अनौचित्य को उन्होंने रस - भंग का सबते पमुख दोष माना है।'
आचार्य मम्मट का दोष - विवेचन सर्वाधिक विस्तृत है। काव्य सम्बन्धी जितने अधिक दोष संभव हो सकते थे प्रायः उन सभी को आचार्य मम्मट ने गिना दिया है। उनके द्वारा प्रतिपादित लगभग सत्तर 8708 दोष है जिन्हें उन्होंने कई भागों में मिक्त करके प्रतिपादित किया है -
1. वही, 4/1-2 2. काव्यादर्श, 3/125-126 3. जैनाचार्यों का अलंकारशास्त्र में योगदान
पृ. 146