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व्यभिधारिभावों का नामोल्लेस किया है।' भाददेवतरि ने "निर्वेदायास्त्रयस्त्रिंशद भावास्तु व्यभिचारिपः' मात्र कहकर व्यभिचारिभावों का उल्लेख दिया है। इस प्रकार जैनाचार्यों द्वारा किये गये उक्त व्यभिचारिभाव - विवेचन में कुछ नवीनतायें दृष्टिगत होती है। यथा - आ. हेमचन्द्र तथा रामचन्द्र-गुपचन्द्र को भरतमुनि सम्मत तैंतीस व्यभिचारिभावों के अतिरिक्त कछ अन्य व्यभिचारिभाव भी स्वीकार है। आचार्य मम्मटनेजो निर्वेद को व्यभिचारिभाव के अतिरिक्त स्थायिभाव भी स्वीकार किया है, वह रामचन्द्र-गुणवन्द्र को अभीष्ट नहीं है।
सात्त्विक भाव : मरतमुनि ने मन से उत्पन्न होने वाले को सत्व कहा है और वह समाहित (एक निष्ठ) मन से उत्पन्न होता है तथा मन की एकनिष्ठता से सत्त्व की निष्पत्ति होती है। ' अत : जिसकी उत्पत्ति में सत्त्व कारप हो वह तात्त्विक भाव कहताता है। ये आठ प्रकार के होते हैं - स्तम्भ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग , वेपथु, वैवर्ण्य, अश्रु और प्रलय।
1. काव्या, वाग्भट - पृ. 57 2. काव्यालंकारतार 8/6 3 नाट्यशास्त्र, 7/93 ५. वही, 7/93