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चतुर्थ अध्याय : दोष विवेचन
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यद्यपि काव्य में दोषों का अभाव ही माना गया है, अतः काव्याम के रूप में दोषाभाव की ही विवेचना होनी चाहिए किन्तु अभाव का ज्ञान अमाव के प्रतियोगी के ज्ञान के बिना संभव नहीं है, अतः दोषाभाव के ज्ञान के लिये दोषों का ज्ञान आवश्यक है। अतएव समी काव्यशास्त्र के आचार्य अपने ग्रन्थों में काव्य - दोषों का भी विवेचन करते चले आए हैं।
दोष - विवेचन सर्वप्रथम आचार्य भरत के नाटयशास्त्र में मिलता है।' आ. भामह सदोष काव्य को कुपुत्र के सदृश निन्दनीय कहते हैं। आचार्य दण्डी काव्य में अल्प-दोष को भी मानव शरीर में कुष्ठ-दाग के समान मानते है। इसी प्रकार जैनाचार्य वाग्भट - प्रथम ने अष्ट काव्य को यश तथा स्वर्ग प्राप्ति का साधन कहा है।
दोष - स्वरूप :
भरतमुनि गुप को दोष का विपर्यय मानते हैं। जबकि आचार्य वामन दोष को गुप का विपर्यय मानते हैं। आधुनिक विद्वान डा0 रेवाप्रसाद दिवेदी का कथन है कि गुपों को ही दोषों का विपर्यय कहना वैज्ञानिक है,
1. नाट्यशास्त्र, 17/88-95 2. काव्यालंकार, 1/11 3 काव्यादर्श, 1/7 + वाग्भटालंकार, 2/5 5. स्त एव विपर्यस्ता गपाः काव्येषु कीर्तिताः
नाट्यशास्त्र, 17/95 - गुपविपर्यासात्मानो दोषाः। १५काव्यालंकारसूत्र, 2/2/1..