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इस प्रकार सभी आचार्यों को सात्विभाव के उक्त आठ प्रकार ही मान्य है। साथ ही उनके द्वारा प्रतिपादित सात्त्विकभाव और उसके भेदों के स्वरूप में भी साम्य प्रतीत होता है। मात्र रामचन्द्र-गुपचन्द्र की अपनी एक विशिष्टता है कि उन्होंने उक्त सात्त्विकभावों को अनुभावों की प्रेपी में रक्या है। यद्यपि उक्त आठ भावों को बहुआचार्यों ने सात्विक भावों की ही संज्ञा दी है तथापि यदि सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाये तो इनमें अनुभावों की भी परिभाषा पूर्णतः घटती है। क्योंकि नायक-नायिका में। परस्पर होने वाले दर्शनादि के पश्चात ही उक्त भावों के चिन्ह प्रतीत होते हैं। अत: अनुभावों के प्रसंग में रामचन्द्र-गुपचन्द्र दारा यदि उक्त मावों की गपना की जाती है तो यह उनकी सूक्ष्म व तीक्ष्म दृष्टि का ही प्रतिफल है।'
रसाभास, भावाभात - भरतमुनि प्रभृति काव्य-नाट्य विद्वानों ने रस तथा भाव आदि की अभिव्यंजना हेतु कुछ नियम निर्धारित किये हैं। वे नियम शास्त्र मर्यादा या लोक - मर्यादा को ध्यान में रखकर निश्चित किये गये हैं। इसी से मुनिपत्नी - विषयक रति आदि का वर्षन प्रतिषिदु या वर्जित माना गया है। इसी प्रकार अन्य रसों में भी कुछ वर्षन प्रतिषिद्ध माने जाते हैं। यहाँ पर शस्त्र तथा लोक का उल्लंघन करने वाले प्रतिषिविषयक वर्षन ही अनुचितरूप में प्रवृत्त होने वाले कहे गये हैं। जो रस या भाव अनुचित रूप में प्रवृत्त होते है वे ही रसाभात या भावाभात कहलाते हैं। यह अनौचित्य अनेक प्रकार का
. द्रष्टव्यः जैनाचार्यों का अलंकारशास्त्र में योगदान, पृ, 135