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स्थायिभावों के प्रसंग में मावों का अर्थ स्पष्ट करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने स्थायी और व्यभिचारी - दो प्रकार के भावों की चर्चा की है। वे लिखते हैं कि - चित्तवृत्तियां ही अलौकिक, वाचिक आदि अभिनय की प्रक्रिया के मारूद होने पर अपने को लौकिक दशा में अनास्वाध होकर भी आस्वाद के योग्य बनाती है अथवा सामाजिक के मन में व्याप्त रहती है और मन को भावित करती हैं अत: भाव कहलाती हैं।
___आचार्य हेमचन्द्र की मान्यता है कि प्रत्येक पापी में जन्म से ही ये नो चित्तवृत्तियां रहती हैं। उन्म से ही प्रत्येक प्राणी इनके ज्ञान से युक्त रहता है, क्योंकि वह दुःर का विदेष करता है सुख को चाहता है और रमप करने की इच्छा से व्याप्त रहता है। इसमें वह अपने को उत्कर्षशाली मानकर परम उपहास करता है, उत्कर्ष का अभाव या विनाश होने की का से शोक करता है, अपाय (विनाश) के प्रति क्रोधित होता है, अपाय के हेतुओं का परिहार होने पर उत्साहित रहता है, विशेष पतन के भय से डरता है, अपने को कुछ अयुक्त मानकर जुगुप्सा करता है, अपने और दूसरों के द्वारा करने योग्य उन - उन वैचित्र्यपूर्व दर्शनों से विस्म्य करता है। कुछ छोड़ने की इछावाला वह वैराग्य के कारप शम का सेवन करता है। इतने प्रकार की वासनाओं (इच्छाओं ) से शुन्य या चित्तवृत्तियों से रहित प्रापी नहीं होता है। केवल किसी में कोई चित्तवृत्ति अधिक होती है, कोई कम। किसी में