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उनके अनुसार स्थायिभावों की संख्या आठ है - रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा व विस्मय।' धनंजय के अनुसार जो भाव अपने विरोधी अथवा अविरोधीभावों के द्वारा विच्छिन्न नहीं होता है, अपितु, लवपाकर (समुद) की तरह अन्य भावों को अपने सना बना लेता है, वह स्थायिभाव है। 2 उन्होंने भरत सम्मत आठ स्थायिभावों को ही स्वीकार किया है तथा अन्याचार्यो द्वारा कहे गये शम की नाट्य में पुष्टि न होने से उसे स्वीकार नहीं किया है। इसी प्रकार निर्वेद को भी स्थायिभाव मानना उन्हें अभीष्ट नहीं है।
जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने नौ स्थायिभावों का उल्लेख किया है - रति, हास, शीक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्ता, विस्मय व शमा ये नौ स्थायिभाव हेमचन्द्र रामचन्द्रगुपचन्द्र', नरेन्द्रप्रभसरि, वाग्भट द्वितीय' को भी समान रूप से मान्य हैं।
1. वही, 6/17 2. हि. दशरूपक, 4/34 3 वही, 4/35 + वही, 4/36 5. वाग्भटालंकार, 5/4 6. काव्यानुशासन, 2/18 7. हि नाट्यदर्प, 3/24 8. अलंकारमहोदधि, 3/25 १. 'काव्यानुशासन, वाग्भट, पृ. 53