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हैं, जुगुप्सा
में शम का अन्तर्भाव नहीं किया जा सकता।
इसी प्रकार धर्मवीर में भी इसका अन्तभाव करना उचित नहीं है, क्योंकि उसका स्थायी भाव उत्साह अभिमानयुक्त होता है और शम में अहंकार का प्रथम रूप रहता है अर्थात् अहंकार का अभाव होने पर ही शम कहलाता है। यदि दोनों को एक ही रूप में कल्पित किया जाय तो वीर और रौद्र में भी अन्तर नहीं रह जाएगा, वहां भी ऐसा ही प्रसंग आ जाएगा। इसलिए धर्मवीरादि चित्तवृत्ति विशेष के सर्वथा अहंकाररहित होने पर ही शान्तरस का पृथकत्व सिद्ध है। ऐसा न होने पर वीररस का प्रभेद ही सिद्ध होगा, इसमें भी कोई विरोध नहीं है। इस प्रकार 9 अलग-अलग रस होते हैं।
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रामचन्द्र-गुणचन्द्र के अनुसार देव मनुष्य - तिर्यकू ( पशु - पक्षी) रूप परिभ्रमण ही संसार है, ऐसे असार संसार ते भयभीत होना, वैराग्य विषयों से विमुख होना, तत्त्व पुण्यापुण्य या जीवाजीवादि का शास्त्रानुसार चिन्तन करना, इत्यादि विभावों से शम स्थायिक शान्त रस होता
है।
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इसमें सुख - दुःखादि द्वन्द्वों का सहन करना, क्षमा जीवाजीव
अर्थात् जड़ व चैतन्य का विचार रूप ध्यान करना, मैत्री
1. वही, वृत्ति, पृ, 123 - 124
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करूपा मुद्रित