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के स्थायी भाव के सम्बन्ध में भी वैमत्य है। कुछ लोग इसका स्थायिभाव शम मानते हैं तथा कुछ निर्वेद। नाट्यशास्त्र के एक प्रक्षिप्त पाठ के अनुसार आचार्य भरत ने शम नामक स्थायिभाववाले शान्तरस को मोक्षप्रवर्तक कहा है। इसकी उत्पत्ति तत्त्वज्ञान, वैराग्य और चित्तशुदि आदि विभावों के द्वारा होती है।'
__जैनाचार्य वाग्भट प्रथम सम्यग्ज्ञान से शान्तरस की उत्पत्ति मानते हैं। इसका नायक ( पुत्रधनादि ) की इच्छा से रहित होता है। यर्थार्थ ज्ञान की उत्पत्ति रागद्वेषादि के परित्याग से ही होती है।
आ. हेमचन्द्र ने शान्तरस को नौ रसों में ही परिगपित किया है तथा उसका सोदाहरप लक्षण निरूपित किया है। वे लिखते हैं कि वैराग्यादि विभावों वाला, यम आदि अनुभावों वाला और धृत्यादि व्यभिचारिभावों वाला शम नामक स्थायिभाव चर्वपीयता को प्राप्त होने पर शान्त रत कहलाता है। आदि पद से वैराग्य, संतार-भीरूता, तत्वज्ञान, वीतरागपरिशीलन, परमेश्वर अनुगह आदि विभाव, यम, नियम अध्यात्मशास्त्र चिंतन
1. नाट्यशास्त्र, बाबलाल शुलशास्त्री, पृ. 350-351 2. वाग्भटालंकार, 5/32 3 वैराग्या दिविभावो यमाचनुभावो धृत्या दिव्यभिचारी शमः शान्तः।
काव्यानुशासन, 2/17