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करूपादि रसों से भी सहृदयों में चमत्कार दृष्टिगत होता है, वह रसास्वाद के समाप्त हो जाने पर यथास्थित जैसे-तैसे पदार्थों को दिखलाने वाले कवि तथा नट के शक्ति कौशल से होता है क्यों कि वीरता के अभिमानी जन भी एक ही प्रहार में सिर को काट डालने वाले, प्रहार-कुशाल शत्रु के कौशॉल को देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हैं। और इसी सांग आनन्दानुभति से कवि
और नटगत शक्ति से उत्पन्न चमत्कार के द्वारा ठगे हुए से द्विान् दुःयात्मक करूपा दि रतों में परमानन्दरूपता का अनुभव करते हैं। इसी आस्वाद के लोभ से दर्शक भी इनमें प्रवृत्त होते हैं।' कविगप तो सुख दुःखात्मक संसार के अनुरूप ही रामादि चरित्र की रचना करते समय सुख-दुःखात्मक रतों से युक्त ही काव्य नाटकादि की रचना करते है और जिस प्रकार पानक-रस का माधुर्य तीक्ष्प आस्वाद से और अधिक अच्छा लगता है, उसी प्रकार करूपादि दुःख प्रधान रसों में दुःख के तीखें आस्वाद से मिलकर सुयों की अनुमति और भी अधिक आनन्ददा यिनी बन जाती है। नाटकादि में सीता के हरप, द्रौपदी के केशा एवं वस्त्राकर्षप, हरश्चिन्द्र की चाण्डाल के यहाँ दासता, रोहिताश्व के मरण, लक्ष्मप के शापित-भेदन, मालती के मारने के उपक्रम आदि के अभिनय को देखने वाले सहदयों को सुखास्वाद कैसे हो सकता है। अतः करूपादि रसों को सुखात्मक मानना उचित नहीं है। इसी के समर्थन में आगे युक्ति देते कहते हैं कि नट के द्वारा करूपादि प्रसंगों में किया जाने वाला अभिनय दुःखात्मक ही है। यदि अनुकरप में उसे सुखात्मक मानेंगे तो वह सम्यक् अनुकरप नहीं होगा।
1. हिन्दी नाट्यदर्पप, 3/1 वृत्ति 2. हि नाट्यदर्पण 3/7 वृत्ति