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रूप से प्रारंभ (परस्पर अनुराग) से लेकर फल (संभोग ) पर्यन्त व्याप्त रहने वाली अलौकिक सुख प्रदान करने वाली आशाबन्धात्मिका रतिरूप जो स्थायी भाव है, वही चर्यमाप होता हुआ शृंगार रस कहलाता है।' संक्षेप में - कामी युगल में एक रूप से व्याप्त रहने वाला, आस्वापमान होता हुआ रतिरूप स्थायीभाव ही श्रृंगार रस है। इस रति के स्त्री, पुरूष माल्यादि विभाव होते हैं तथा जुगुप्ता, आलत्य एवं उगता को छोड़कर अन्य सभी तीस व्यभिचारीभाव हो सकते हैं।
श्रृंगार रस की दो अवस्थाएं हैं- संभोग एवं विप्रलम्भा आचार्य हेमचन्द्र की धारपा है कि संभोग और विप्रलम्भ ये श्रृंगार के दो भेद नहीं है अपितु शाबलेय (चितकबरा) व बाहुलेय ( काला)गोल्व की भांति श्रृंगार की दो प्रकार की दशा ही हैं। दोनों के साथ श्रृंगार उसी तरह प्रयुक्त होता है, जेते - गाम के एक देश को भी गाम कहा जाता है। उनका कथन है कि विप्रलम्भ में भी अविच्छिन्नरूप से संभोग की कामना रहती है। निराश हो जाने पर तो करूप रस ही होगा, विप्रलम्भ नहीं। संभोग श्रृंगार में भी यदि वि रह की आशंका नहीं होगी तो प्रियजन के निरन्तर अनकल रहने पर अनादर ही होगा; क्योंकि काम की गति वाम होती है। जैसा कि भरतमुनि ने कहा है -"प्रतिकूल विषय के प्रति जो उत्कट अभिलाषा होती है, तथा उससे जो निवारण किया जाता है और जो नारी की दुर्लभता होती है
1. काव्यानुशासन, पृ. 108