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हेमचन्द्र ने अध दर्शनादि विभाववाली, अंगसंकोच आदि अनभाव
वाली, अपस्मार आदि व्यभिचारिभाववाली जुगुप्सा, चर्वपीय दशा को प्राप्त होने पर वीमत्स रस कहलाती है। ऐसा माना है। आदि पद से उल्टी, घाव, पीप, कृमि - कीटादि का दर्शन, श्रवप आदि विभाव, अंगर्सकोच, हल्लास, नासा, मुख-विकूपन, आच्छादन, निष्ठीवन आदि अनुभाव तथा अपस्मार उगता, मोह, मद आदि व्यभिचारिभाव का समावेश किया गया है। इसके उदाहरपरूप में आ. हेमचन्द्र “उकृत्योत्कृत्य कृत्तिं.... इत्यादि उदाहरप प्रस्तुत किया है।
रामचन्द्र-गुपचन्द्र ने वीभत्स रस की अभिवयक्ति अय, अप्रिय, अपवित्र एवं अनिष्ट वस्तुओं के दर्शन, प्रवप व उद्वेजन अर्थात शरीर के हिलाने आदि रूप विभावों से होती है। अपने सभी अंगों का संकोचन, थकना, मुख फेर लेना, नाक दबाना, आपस में अनजाने ही पैरों को पटकना, आँखों को टेढ़ा करना आदि इसके अनुभाव हैं और व्याधि, मोह, आवेग, अपस्मा रादि व्यभिचारी भाव हैं।
नरेन्द्रप्रभसरि' एवं वाग्भट द्वितीय' दोनों का वीभत्स-रत विवेचन हेमचन्द्र सम्मत है।
1. काव्यानुशासन, 2/15 2. वही, वृत्ति , पृ. 119 3 हि. नाट्यदर्पप, पृ. 316 + अरम्यालोकनायुत्या संकोचादिनिबन्धनम् ।
वीभत्सा स्याज्जगप्साऽपत्मारादिव्यभिचारिणी।।
___ अलंकारमहोदधि, 3/22 .5 • काव्यानुशासन, वाग्मंट, पृ. 56-57