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इस प्रकार हेमचन्द्राचार्य के अनुसार विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारीभाव मिलकर रसाभिव्यक्ति करते है, इस नियम में कोई व्यभिचार नहीं होता है।
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आचार्य रामचन्द्र गुणचन्द्र की रसस्वरूप विषयक मान्यता अन्य सभी आचार्यों से विलक्षण है। उनके अनुसार विभाव और व्यभिचारीभाव आदि के द्वारा उत्कर्ष को प्राप्त होने वाला तथा स्पष्ट अनुभावों के द्वारा प्रतीत होने वाला, स्थायिभाव ( रूप ही ) सुखदुः रवात्मक रस होता है।' प्रस्तुत स्वरूप की व्याख्या में प्रतिक्षण उदय और अस्त धर्म वाले अनेक व्यभिचारिभावों में जो अनुगतरूप से अवश्य विद्यमान रहता है वह "स्थायिभाव" कहलाता है। अर्थात् स्थायिभाव के रहने पर ही उसके रहने तथा न रहने पर व्यभिचारिभावों के न रहने ते व्यभिचारिभावरूप ग्लानि के प्रति इत्यादि निश्चित रूप
स्थायिभाव होता है। उपर्युक्त व्यभिचारिभाव आदि सामग्री के द्वारा परिपाक को प्राप्तकर रसरूप रत्यादि भवतीति भाव:" इस व्युत्पत्ति के अनुसार भाव कहलाता है। विभाव अर्थात् ललना उद्यानादि आलम्बन व उद्दीपन विभावरूप वाह्य कारणों द्वारा पहले से विधमान स्थायिभाव का ही अविर्भाव होने से तथा सहृदयों के मन में विद्यमान ग्लानि आदि व्यभिचारिभावों के द्वारा परिपुष्ट होने के कारण, उत्कर्ष को प्राप्त अर्थात साक्षात्कारात्मक अनुभूयमानावस्था को प्राप्त, यथासंभव सुख-दुःखोभयात्मक,
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स्थायी भावः श्रितोत्कर्षो विभाव-व्यभिचारिमः । स्पष्टानुभावनिश्चयः सुखदुःखात्मको रसः ।।
हिन्दी नाट्यदर्पण 3/7