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ही है, नट - अनुवर्ता या अनुकार्य रामा दि नहीं है।'
नरेन्द्रप्रभतरि ने विभाव अनुभाव तथा व्यभिचारिभावों से अभियक्त होने वाले रत्यादि स्थायिभाव को रस कहा है। तत्पश्चात भरत - रस - सूत्र को प्रस्तुत करते हुए आचार्य मम्मट के सदृशा मट्टलोल्लट, शैकुक, भट्टनायक व अभिनवगुप्त के रमविषयक मतों का प्रतिपादन किया है।'
___ आचार्य वाग्भट द्वितीय ने विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारिभावों से अभिव्यक्त होने वाले स्थायिभाव को रस कहा है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि अन्याचार्यों के समान जैनाचार्यों ने भी प्रायः भरत-रस-सूत्र को आधार मानकर अपना रस-स्वरूप निरूपप किया
है।
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काव्ये नटेऽन्यत्रवा रसत्यासत्वात असतश्चापि प्रत्यये अह्दयस्यापि प्रतीतिः स्यात्। ततो विभावयतिपादककाव्यपतिपत्तेरनन्तरं प्रतिपत्तुरेव स्थायी रसो भवति।
हिन्दी नाट्यदर्पप, पृ. 303
2. विभावैरनुभावैधच व्यक्तोऽय व्यभिचाभिः ।
स्थायी रत्यादिको भावो रसत्वं प्रतिपद्यते।। __
अलंकारमहोदधि 3/12 3. अलंकारमहोदधि, 3/12 वृत्ति + काव्यानुशासन, वाग्भट, पृ. 53