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दण्डी ने काव्य-प्रयोजन की चर्चा अलग से न करके काव्य लक्षप में ही संक्षिप्त रूप से कर दी है। दण्डी ने भामह के द्वारा प्रतिपादित "चतुर्वर्गफलप्राप्ति" को ही काव्य-प्रयोजन के रूप में स्वीकार किया है।' साथ ही उनका कथन है कि काव्य लोकरंजक होना चाहिए। रीतिवादी आचार्य वामन ने भामह प्रतिपादित काव्य-प्रयोजनों में से केवल प्रीति तथा कीर्ति को ही काव्य-प्रयोजन के रूप में स्वीकार किया है तथा पीति ( आनन्दानुभूति) को दृष्ट प्रयोजन तथा कीर्ति (यश)को अदृष्ट प्रयोजन बतलाया है।' दृष्ट तथा अदृष्ट रूप में काव्य-प्रयोजन के विभाजन का श्रेय निश्चित ही वामन को है।
तदनन्तर ध्वनियादी आचार्य आनन्दवर्धन (१वीं शताब्दी) ने भी प्रीति को ही काव्य का प्रधान प्रयोजन स्वीकार किया - "तेन ब्रूमः सझदयमन ः प्रीतये तत्स्वरूपम् । किन्तु ध्वनिवादी आचार्य आनन्दवर्धन
1. काव्यादर्श, 1/15 2. लोकर-जनम काव्यम् -
वही, 1/19 3 काव्यं सद दृष्टादृष्टा प्रीतिकी तिहतुत्वात्।
काव्यालंकारसूत्र, 1/1/5 वन्यालोक: 1/1