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प्रश्न उत्पन्न होता है कि आचार्य वाग्भट प्रथम ने आनन्दरूप प्रयोजन
का उल्लेख क्यों नहीं किया? पर जहाँ तक वाग्भेट
आनन्दरूप प्रयोजन के उल्लेख न करने की बात है उस सम्बन्ध में ये कहा जा सकता है कि उनके अनुसार पाठक का प्रयोजन पढ़ने के साथ ही स्वयंसिद्ध है अत: उसका कोई उल्लेख नहीं किया है। चूँकि कवि की रचना उसकी कीर्ति में प्रायः कारण होती है, अतः वाग्भट - प्रथम द्वारा यश को ही काव्य का प्रयोजन मानने का औचित्य ठहरता है।
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आ. हेमचन्द्र ने मम्मट सम्मत छ ः काव्य-प्रयोजनों में से काव्य के तीन ही प्रयोजन स्वीकार किए हैं आनन्द, यश तथा कान्तासम्मित उपदेश।' हेमचन्द्र के अनुसार आनन्द का अर्थ रसास्वाद ते उद्भूत होने वाली वेद्यान्तर सम्पर्कशून्य ब्रह्माम्वाद सविध प्रीति है। 2 आनन्द को उन्होंने अन्य काव्य प्रयोजनों का उपनिषद्भूत मुख्य प्रयोजन बताया है। क्योंकि यश तथा व्युत्पति के द्वारा भी आनन्द
का सम्पादन होता है। जैसा कि कहा गया है - "कीर्तिस्वर्गफलमाडु: "3
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प्रथम द्वारा
I. काव्यमानन्दाय यशते कान्तातुल्योपदेशाय चा
काव्यानुशासन, 1/3
सद्योरसास्वादजन्मा निरस्तवेद्यान्तरा ब्रह्मास्वादसदृशी प्रीतिरानन्दः ।
काव्यानु, 1/3 की वृत्ति
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3. यशोव्युत्पत्तिफलत्वेऽपि पर्यन्ते सर्वत्रानन्दस्यैव साध्यत्वात् । तथाहि कवेस्तावत् कीर्त्यापि प्रीतिरेव संपाद्या । यदाह (1)* कीर्ति: स्वर्गफ्लामाहुः ।'
काव्यानुशासन, विवेक टीका, पृ. 3