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से युक्त भी काव्य हास्यास्पद हो जाते हैं।' काव्य के ऐसे महत्वपूर्ण तत्व
की अभिव्यक्ति के लिये कवि का सर्वात्मना प्रयत्नशील होना सर्वथा
अपेक्षित है।
रस-सिद्धान्त का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य भरत ने अपने नाट्यशास्त्र में किया है यद्यपि यह नाट्यशास्त्र की रचना के पूर्व अपने अस्तित्व में विद्यमान रहा है। पर भरतमुनि ने अब तक जो रस-स्वरूप अनिश्चिय के हिंडोले में इधर उधर झूल रहा था, उसे निश्चित स्थान पर बैठाकर रस को सुव्यवस्थित रूप से परिभाषित करते लिखा कि - "विभाव अनुभाव तथा व्यभिचारिभाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।'
रस-सिद्धान्त का यह प्रथम सत्र उत्तरवर्ती आचार्यों के लिये आधारशिला बना । इसमें प्रयुक्त "निष्पत्ति" शब्द को लेकर बहुत विवाद हुआ तथा परिपामस्वरूप भट्टलोल्लट के उत्पत्तिवाद, शैकुक के अनुमितिवाद, मट्टनायक के मुक्तिवाद तथा अभिनवगुप्त के अभिव्यक्तिवाद नामक सिद्धान्तों का प्रादुर्भाव हुआ। इनकी विस्तृत व्याख्या अभिनवगुप्तकृत “अभिनवभारती में
1. श्लेषालंकारभाजोऽपि रता नित्यन्दकर्कशाः। दर्भगा इव कामिन्यः पीपन्ति न मनो गिरः।।
नाट्यदर्पप, 1/7 व्यंग्यव्यजकमावेऽस्मिन्विविधै सम्भवत्यापि। रसादिमय एकस्मिन्कविः स्यादवधानवान् ।।
ध्वन्यालोक 4/5 3 नाट्यशास्त्र, षष्ठ अध्याय, पु. 71