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रत-सूत्र को व्याख्यायित करते वे लिखते हैं कि - वा चिक आदि अभिनयों ते युक्त जिनके द्वारा स्थायी और व्यभिचारिभाव विशेष रूप से जाने जाते है वे काव्य और नाट्यशास्त्र में प्रसिद्ध ललना, आदि आलम्बन और उधानादि उद्दीपन स्वभाव वाले विभाव कहलाते हैं। स्थायिभाव और व्यभिचारिभाव रूप चित्तवृत्ति विशेष का अनुभव करते हुए सामाजिक लोग जिन कटाक्ष व भुजाक्षेप आदि द्वारा साक्षत्कार करते हैं तथा जो कार्यरूप में परिपंत होते है, वे अनुभाव कहलाते हैं। विविध रूप से रस की ओर उन्मुख होकर विचरप करने वाले धृति, स्मृति आदि व्यभिचारिभाव कहलाते हैं। ये विभावादि स्था यिभाव के अनुमापक होने से लोक में कारप, कार्य व सहकारी शब्दों से सम्बोधित किये जाते हैं। ये मेरे हैं, ये दूसरे के हैं, ये मेरे नहीं है, ये दूसरे के. नहीं है। इस प्रकार सम्बन्ध विशेष को स्वीकार अथवा परिहार करने के नियम का निश्चय न होने से साधारप रूप से प्रतीत होने वाले तथा विभावादि से अभिव्यक्त होने वाले सामा जिलों में वासना रूप से स्थित रत्यादि स्थायिभाव है। यह स्थायिभाव नियत प्रमाता (सहृदय विशेष)में स्थित होने पर भी विभावादि के साधारपीकरप के कारण सभी सहृदयों की समान अनुमति का विषय बना हुआ, आस्वादमात्र स्वरूप वाला, विभावादि की भावना पर्यन्त रहने वाला, अलौकिक चमत्कार को उत्पन्न करने के कारण परबहमास्वादसहोदर तथा निमीलित नेत्रों से कवि व सदयों द्वारा आवाघमान, स्वसंवेदन सिद रत कहलाता है।'
1. वही, 2/ वृत्ति