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असत्प्राधान्य - उनके अनुसार व्यइ. ग्यार्य का उत्कर्ष न होने पर अतत्प्राधान्य नामक काव्य होता है।' यथा -
वापीरकुडंगुट्टी पसउफिकोलाहलं सुपंतीर। घरकम्मवावडाए बहए तीयंति अंगाई।। वानी रकुञोडीनशंक निकोलाहलं शृण्वन्त्याः । गृहकर्मव्यापृताया वध्वाः सीदन्त्यंगानि।।2
यहाँ पर 'दत्तसंकेत कोई पुरुष लतागृह में प्रविष्ट हो गया' इस व्यंइ. यार्थ से "वध के अंग शिथिल हो रहे हैं - इस वाच्यार्थ की ही अतिशयता (प्रधानता है।
इस संदिग्ध प्रधान्य - जहाँ पर वाच्यार्थ अथवा व्यंइ ग्यार्थ की प्रधानता संदिग्ध होती है अर्थात् यह निश्चय नहीं हो पाता कि वाच्यार्थ प्रधान है अथवा व्यइम्पार्थ प्रधान है तो वह संदिग्ध प्राधान्य नामक मध्यम काव्य होता है। यथा -
महिलासहस्समरिए तुह हियर सुदय सा अमायन्ती। अपदिण्मपण्पकम्मा अंग तपुयं पि तणुएइ।।'
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। तत्रासत्प्राधान्यं क्वचिद्राच्याद्नु त्कर्षेप।
___ काव्यानुशासन, 2/57 की वृत्ति 2. वही, पृ. 152 3. वही, पृ. 155