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कहीं वाच्यार्य निषेधरूप होने पर भी प्रतीयमानार्थ
अनभयरूप होता है।
दे आ पतिम निअन्तत मुहसस्लिोण्हाविलुत्ततमो निवहे। अहिसारिआप विग्र्ष करेति अण्पापवि यासे।।'
कहीं वाच्यार्य के किव निषेध रूप होने पर भी प्रतीयमानार्थ
अनभयरूप होता है। यथा -
वच्च महं चिझ एक्काए होंतु नोसासरोइअव्वाई। मा तुझ वि तीर विपा दक्मिण्पयस्स जायतु।।2
कहीं वाच्यार्थ के न विधि और न निषेध रूप होने पर भी प्रतीयमानार्थ अनुभयरूप होता है। यथा -
पमुहपता हिअंगो निदाघुम्मंतलोअपो न तहा। जह निव्वपाहरो तामलंग मे सि मह टिअयं ।।।
कहीं वाच्यार्थ ते प्रतीयमानार्थ विभिन्न विषय वाला भी हो
सकता है, यथा -
कस्स व न होइ रोसो दळूप पिझाइ सव्वपं अरे। सभमरपउमग्याइरि वारिअवामे सहत इण्डिं।।
1. वही, पृ. 55 2. वही, पृ. 56
वही, पृ. 56 + काव्यानुशासन, पृ. 57