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________________ 83 कहीं वाच्यार्य निषेधरूप होने पर भी प्रतीयमानार्थ अनभयरूप होता है। दे आ पतिम निअन्तत मुहसस्लिोण्हाविलुत्ततमो निवहे। अहिसारिआप विग्र्ष करेति अण्पापवि यासे।।' कहीं वाच्यार्य के किव निषेध रूप होने पर भी प्रतीयमानार्थ अनभयरूप होता है। यथा - वच्च महं चिझ एक्काए होंतु नोसासरोइअव्वाई। मा तुझ वि तीर विपा दक्मिण्पयस्स जायतु।।2 कहीं वाच्यार्थ के न विधि और न निषेध रूप होने पर भी प्रतीयमानार्थ अनुभयरूप होता है। यथा - पमुहपता हिअंगो निदाघुम्मंतलोअपो न तहा। जह निव्वपाहरो तामलंग मे सि मह टिअयं ।।। कहीं वाच्यार्थ ते प्रतीयमानार्थ विभिन्न विषय वाला भी हो सकता है, यथा - कस्स व न होइ रोसो दळूप पिझाइ सव्वपं अरे। सभमरपउमग्याइरि वारिअवामे सहत इण्डिं।। 1. वही, पृ. 55 2. वही, पृ. 56 वही, पृ. 56 + काव्यानुशासन, पृ. 57
SR No.010447
Book TitlePramukh Jainacharyo ka Sanskrit Kavyashastro me Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRashmi Pant
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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