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समान स्वयंप्रकाश है। जिस प्रकार प्रकाशस्वभाव "सूर्य" के अमर आवरण
के रूप में मेघपटल छा जाते हैं, उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्मों के सम्पादन स्वभाव आत्मा के ऊपर अज्ञानावरण पड़ा रहता है जब
के कारण प्रकाश
इस अज्ञानावरण का नाश (क्षय) होता है अथवा इसका उपशम हो जाता है
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तब प्रतिभा स्वत: अपनी पूर्णविभूतियों के साथ आविर्भूत होती है। जब यह आविर्भाव स्वत: सम्पन्न होता है तो उसे सहजा प्रतिभा कहते हैं। द्वितीय औपाधिकी प्रतिभा मन्त्रादि से उत्पन्न होने वाली है। 2 अर्थात् जब वाय उपायों, जैसे देवता की कृपा से, मंत्र के बल से, किसी महापुरूष के अनुग्रह ते यह कार्य सम्पन्न होता है तो उसे औपाधिकी प्रतिभा कहते हैं। 3
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1. रुवितुखि प्रकाशस्वभावत्यात्मनोऽ भ्रपटलमिव ज्ञानावरणीयायावरपम्, तस्योंदितस्य वयेऽनुदितस्योपशमे च यः प्रकाशा विर्भावः सा सहजा प्रतिभा ।
2.
काव्यानुशासन, 1/5, वृत्ति
मंत्रारोपाधिकी वही, 1/6
3. मन्त्रदेवतानुग्रहा दिपभवोपाधिकी प्रतिभा । इयमप्याचरणक्षयोपशमनिमित्ता, एवं दृष्टोपाधिनिबन्धनत्वात्तु औपाधिकीत्युच्यते ।
वही, 1/6, वृत्ति
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