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प्रपीत महाकाव्यों में निपुपता को ही व्युत्पत्ति कहा है।' अभ्यास का विवेचन करते वे लिखते हैं कि किसी काव्यवेत्ता के पास रहकर उसकी शिक्षा के द्वारा काव्य-रचना के लिये पुनः प्रयास करना ही अभ्यात है। आ. हेमचन्द्र की मान्यता है कि अभ्यास द्वारा परिमार्जित की गई प्रतिभा काव्यरूपी अमृत को प्रदान करने वाली कामधेनु की भांति है।' इतकी पुष्टि हेतु उन्होंने आ. वामन का मत उद्धृत करते हुए
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1. लोकशास्त्रकाव्येपु निपुणता व्युत्पत्तिः।
लोके स्थावरजङ्गमात्मके लोकवृत्ते च शास्त्रेषु शब्दच्छन्दोनशासना झिज्ञानकोश श्रुतिस्मृतिपुरापेतिहासागमतर्कनाट्या कामयोगा दिगन्येषु काव्येषु महाकवि प्रपीतेषु निपुपत्वं तत्त्ववेदित्व व्युत्पत्ति: लोकादि निपुपता। काव्यानु. 1/8 तथा वृति।
2. काव्यविच्क्षिया पुनः पुनः प्रवृत्तिरभ्यास:
वही, 1/9 3. अभ्याससंस्कृता हि प्रतिभा काव्यामृतकामधेनुर्भवति।
वही, हत्ति पृ. 14