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जैनाचार्य वाग्भट प्रथम ने प्रतिभा को ही काव्य का हेतु स्वीकार किया है तथा शेष व्युत्पत्ति तथा अभ्यास को क्रमशः विशेष शोभाजनक तथा शीघ्र काव्य निर्माप में सहायक कहा है।' पुनः तीनों का स्वरूप निरूपित करते लिखा है कि - प्रसादादि गुणों वाले रमपीय पदों से, नदीन व चमत्कारपूर्ण अर्थ की उदभावना करने में समर्थ तथा स्फुरपशीला, सत्कवि की सर्वतोमुखी बुद्धि का नाम प्रतिभा है। 2 गुरूपरम्परा से प्राप्त शब्दशास्त्र, श्रुति - स्मृति - पुरापा दि धर्मशास्त्र तथा वात्स्यापन - प्रणीत कामसूत्रादि जो अनेक शास्त्र हैं उनमें परम्परा से प्रवृत्त रहने वाली अताधारण प्रतिपत्ति ही व्युत्पत्ति कही गयी हैं। 3
१. प्रतिभाका रपं तत्य व्युत्पत्तिस्तु विभूषणम् । भृशोत्पत्तिकृदभ्यास इत्याधकवितङ्कया।।
वाग्भटालंकार, 1/3 2. प्रसन्नपदनव्यार्थयुक्त्युदोधविधा यिनी। स्फुरन्ती सत्कवेर्बुद्धिः प्रतिभा सर्वतोमुखी।
वही, 1/4 3. शब्दधर्मार्थकामा दिशास्त्रेष्वानायपूर्विका। प्रतिपत्ति रसामान्या व्युत्पत्तिरभिधीयते॥
वही, 1/5