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आचार्य भावसरि
आचार्य भावदेव सूरि कालिकाचार्य- संतानीय खंडिलगच्छीय परंपरा के आचार्य जिनदेवसूरि के शिष्य थे। इनका समय 14वीं शताब्दी का पूर्वार्ध प्रतीत होता है, क्योंकि इन्होंने पार्श्वनाथ चरितं की रचना वि. सं. 1412 मे श्रीपत्तन नामक नगर में की थी, जिसका उल्लेख पार्श्वनाथ-चरित" की प्रशत्ति में किया गया है।
आचार्य भावदेवसूरि ने "काव्यालंकारसार" इस अलंकारविषयक ग्रन्थ के अतिरिक्त अन्य कितने ग्रन्थों की रचना की, यह स्पष्टरूपेण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इन ग्रन्थों में, परस्पर एक दूसरे का कहीं भी उल्लेख नहीं है, किन्तु "पार्श्वनाथचरित?, "जड़ दिपचरिया (प्रतिदिनचर्या) 3 और कालिकाचार्यकथा" नामक ग्रन्थों मे कालिकाचार्य सन्तानीय भावदेवसूरि का
1. तेषां विनेयविनयी बहु भावदेव सूरिः प्रसन्न जिनदेवगुरूप्रसादात् । श्रीपतनारव्यनगरे रवि विश्ववर्षे पाश्र्वाप्रभोख्यचरित रलमिदं ततान । । पार्श्वनाथचरितप्रशस्ति, 14
("जैनाचार्यो का अलंकारशास्त्र में योगदान' पृ. 43 से उद्धृत 1 ) "जैनाचार्यो का अलंकारशास्त्र में योगदान " पृ. 44 से उद्धत ।
2.
3.
तिरीका लिकसूरीपं वसव्यव भावदेवसूरी हूिँ ।
संकलिया दिपचेरिया एसा योवमइजणे (ई ) जोग्गा । ।
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यतिदिनचर्या - प्रान्त, गा० ( अलंकारमहोदधि प्रस्तावना, पृ. 17 )
4. तत्पादपद्ममधुपा : विज्ञ, श्रीभावदेवसूरीपा:
श्री कालकाचरितं पुनः कृतं यैः स्वर्गः पूर्त्या ।।
जैन सिद्धान्तभास्कर, भाग 14, किरण2, ए. 38