________________
63
समाप्तिपर्यन्त एक ही छन्द का प्रयोग भी किया जा सकता है।' आचार्य वाग्भट द्वितीय का महाकाव्य-स्वरूप आचार्य हेमचन्द्र के सूत्ररूप में निबद्ध महाकाव्य के स्वरूप और वृत्ति में किये गये व्याख्यान के सम्मिश्रप का पुनः स्त्र रूप में निबदु परिष्कृत रूप है।2
1. प्रायोगहपात संस्कृत भाषयाऽप्याश्वासकबन्धो हरिप्रबोधादौ न
दुष्यति। प्रायोगहपादेव रावपविजयहरिविजयसेतुबन्धेन्वादित : समाप्तिपर्यन्तमेकमेवं छन्दो भवतीति।
काव्यानु, 8/6 वृत्ति 2. तत्र प्रायः संस्कृतप्राकृतापभंशगाम्यभाषानिबद्ध भिन्नान्त्यवृत्तसर्गा
श्वासकसंध्यवस्कन्धकबन्धम, मुखपतिमुखगर्भविमर्शनिर्वहफ्रूपसंधिपंचकोपेतम्, असंक्षिप्त गन्थम, अविषमबन्धम, अनतिविस्ती परस्परसंबद्ध सर्गम, आशीर्नमष्त्यिावस्तुनिर्देशोपक्रमयुतम, वक्तव्यवस्तुप्रतिज्ञाततप्रयोजनोपन्यासकविप्रशंसा सज्जनदुर्जनचिन्ता दिवाक्योपेतम्, दुष्करीचित्रायेकसगांकितम, स्वभिप्रेतवस्त्वंक्तितर्गान्तम्, चतुर्वगफ्लोपेतम्, चतरोदात्तनायकम, प्रसिद्धनायकचरितमु, नगनागरतागरतचन्द्राकॊदयास्तसमग्रोधान जलके लिमपानसरतमन्त्रदततैन्यावासपयापा जिनायकाभ्युदय विवाहविपलम्भाश्रमनद्यादिवर्पनोपेतं महाकाव्यम्।
काव्यानु., वाग्भट, पृ. 15