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इसी द्वन्द्व को समाप्त करने के उद्देश्य से आचार्य भामह ने "शब्दार्थो सहितौ काव्य" । यह काव्य का लक्षण प्रस्तुत किया। अर्थात् उन्होंने शब्द एवं अर्थ दोनों के सहभाव को काव्य माना। वे सहभाव या "सहितौ" शब्द का क्या अर्थ ग्रहण करते हैं इसकी व्याख्या उन्होंने नहीं की। पर उनका अभिप्राय यह है कि जिस रचना में वर्णित अर्थ के अनुरूप शब्दों का प्रयोग हो या शब्दों के अनुरूप अर्थ का वर्णन हो वे शब्द तथा अर्थ ही "सहित पद से विवक्षित हैं। लेकिन यह काव्य स्वरूप मनीषियों को अधिक ग्राहय न हो सका क्योंकि यह अतिव्याप्ति दोष से ग्रस्त था तथा इसमें सामान्य गद्य-पद्य रचना का भी समावेश सम्भव था।
आ. दण्डी ने भामहकृत काव्यलक्षण का परिष्कार करते हुए काव्य
स्वरूप निरूपण इस प्रकार किया अभिलषित अर्थ को अभिव्यक्त करने वाली पदावली का नाम काव्य है। 2 दण्डी ने मामह के "सहितौ" पद का अर्थ स्पष्ट करते हुए सर्वप्रथम काव्य के शरीर की ही बात की है। काव्यात्मा के विषय मे उन्होंने कोई विचार नहीं किया है। अतः भामह तथा दण्डी के काव्यस्वरूप में कोई मौलिक अन्तर नहीं है। दण्डी के अभिलषित अर्थ व पदावली ( शब्द समूह ) तथा भामह के शब्द व अर्थ में लगभग एक ही बात का कथन किया गया है। यह भी अतिव्याप्ति दोषयुक्त काव्य है।
1. काव्यालंकार 1/16
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शरीरं तावदिष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली । काव्यादर्श, 1/10