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उच्चस्तरीय काव्य का संकेतक है। दे ध्वनि को वस्तु, अलंकार तथा रत ध्वनि भेद ते तीन प्रकार का बताते हुए रतध्वनियुक्त काव्य को सर्वोत्कृष्ट मानते हैं। उन्होंने लिया कि “सह्दयों के हृदय को आनंदमग्न करने वाला, रसा भिव्यक्ति करा देने वाला शब्दार्थयुगल काव्य है।' ध्वनितत्त्व की दृष्टि से यह नक्षप महत्वपूर्ण व आदर्शभूत है पर इसमें गुप, दोर, अलंकारादि
विशेषपों की चर्चा नहीं की गई है तथा यह चित्रकाव्यादि को अपने अंदर
समाहित नहीं कर सकता, अत: अत्याप्ति दोषयुक्त है।
राजशेखर ने काव्यपुरुध की कल्पना करके काव्य-स्वरूप में शब्द, अर्थ, गुण, रस व अलंकार सभी का सामंजस्य करने का प्रयास किया। वक्रोक्तिका र कुन्तक ने भी यपि "वको न्ति : काव्यनी वितम् यह मानते हुए विदग्धगीभणिति को ही काव्य बतलाया तथापि काव्य-स्वरूप की व्याख्या करते हुए उसके सभी अंगों की ओर ध्यान दिया। तदनन्तर काव्य लक्षण में समन्वय की प्रवृत्ति बढ़ती रही। एक भोज राज ने काव्य को गुपों से युक्त अलंकारों से अलंकृत व रतों से रामन्वित माना तो दूसरी ओर
ओर
1. सहदयहृदयाक्षादि शब्दार्थमयत्वमेव काव्यलक्षपम
वडी, 1/I, वृत्ति 2. काव्यमीमांसा, तृतीय अध्याय 3. निर्दोष गपवत्काव्यमलंकारेलकृतम्। रसान्वितं कविः कुर्वन की ति प्रीतिं च विन्दति।।
सरस्वती कण्ठाभरप 1/2