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( अस्पष्ट ) प्रतीति होती है वहाँ भी निर्दोषता, सगुणता तथा व्यंजना का तमावेश होने पर काव्यत्व की हानि नहीं होती। जैसे - गेयं श्रोत्रैकपेयं... इत्यादि में।
आचार्य नरेन्द्रप्रभसूरि ने मम्मट के काव्य-स्वरूप में " सव्यंजनस्तथा" यह एक विशेषण जोड़ा है जो सर्वथा मौलिक है। लेकिन यहां पर यह विचारणीय है कि काव्य के सभी प्रकारों में व्यंजना का समावेश तो नहीं होता । स्वयं नरेन्द्रप्रभसूरि ने काव्य के अवर काव्य नामक तृतीय भेद के रूप में व्यंजना की अनिवार्यता का उल्लेख नहीं किया है। 2 जिससे उनका यह काव्य-स्वरूप अव्याप्ति दोष से ग्रसित है। अतः उक्त विशेषण सदोष है।
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वाग्भट द्वितीय ने आचार्य मम्मट के काव्यस्वरूप की पुनरावृत्ति मात्र करते हुए काव्यलक्षण दिया कि "दोषरहित, गुणसहित तथा प्राय: अलंकार युक्त शब्दार्थ समूह काव्य है। 3 इसके उदाहरणरूप में "शून्यंवासगृहं विलोक्य ...." इत्यादि उदाहरण प्रस्तुत किया है।
1. यत्राप्यस्फुटत्वं तत्रापि चमत्कारिण्यपरत्रये निर्दोषत्व सगुणत्व - सव्यजंनत्वलक्षणे सति न काव्यता परिहीयते । " वही, वृति, पृ. 11
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2.
यत्र व्यंजनवैचित्र्यचारिमा कोऽपि नेक्ष्यते । काव्याध्वनि सदाऽध्वन्यैस्तत् काव्यमवरं स्मृतम् ।। अलंकारमहोदधि, 1/17
3. शब्दार्थों निर्दोषौ सगुणी प्रायः सालंकारी काव्यस काव्यानुशासन - वाग्भट, पृ. 14
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