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नाट्यदर्पण का प्रतिपाय विषय रूपक भेद ही है। यह चार विवेकों
में विभक्त है।
प्रथम दिवेक में मंगलाचरप के पश्चात् रूपक प्रकार, रूपक के प्रथम भेद नाटक का स्वरूप, नायक के चार भेद, वृत्त चरित के सच्य, प्रयोज्य, अभ्यय कल्पनीय एवं उपेक्षपीय नामक चार भेद तथा कुछ अन्य भेदों के । सायं काव्य में परित निबन्धन विषयक शिक्षाओं का विवेचन किया गया है। तत्पश्चात अंक, अर्थप्रकृति, कार्यावस्था, अर्थोपक्षेपक, सन्धि व सन्ध्यंग का
विवेचन है।
द्वितीय विवेक में, नाटक के अतिरिक्त प्रकरप, ना टिका प्रकरपी, व्यायोग, समवकार, भाण, प्रहसन, डिम, उत्सृष्टिकांक, ईहामृग तथा वीथि नामक शेष ।। रूपकों का लक्षपोदाहरप सहित विवेचन है। पुनः वीथि के 13 अंगों का भी प्रतिपादन है।
तृतीय विवेक में भारती, सात्वती, कैशिकी व आरटी नामक चार वृत्तियों का विवेचन है, पुनः रस स्वरूप, उसके भेद, काव्य में रस का सन्निवेश, विरुद्ध रसों का विरोध तथा परिहार, रसदोष, स्थायीभाव, व्यभिचारिभाव, अनुभाव तथा वाचिक, आंगिक, सात्विक तथा आहार्य नामक चार अभिनयों का विस्तृत विवेचन किया गया है।
___ चतुर्थ विवेक में, समस्त रूपकों के लिये उपयोगी कुछ सामान्य बातों को प्रस्तुत किया गया है। इसमें नान्दी, धुटा का स्वरूप, रसके प्रादेशिकी,