________________
नरेन्द्रप्रभतरि
नरेन्द्रप्रभतरि हर्षपुरीयगच्छ के आचार्य नरचन्दतरि के शिष्य थे। इनके गुरू न रचन्द्रतरि न्याय, व्याकरण साहित्य तथा ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे।'
तेरहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में मुघ रात के धोलका नामक नगर के वाघेला - वंशीय राजा वीरधवल के महामात्य वस्तुपाल एक विद्या - मण्डल का संचालन करते थे, जिसने संस्कृत साहित्य के विकास में अमूल्य योगदान दिया है। विद्यामंडल के संपर्क में अनेक विद्वान थे, उनमें नरचन्द्रसरि भी एक थे। महामात्य वस्तुपाल तथा नरचन्द्रतरि में प्रगाढ़ मैत्री थी। एक बार वस्तुपाल ने श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़कर नरचन्द्रसरि ते निवेदन किया कि अलंकारविषयक कुछ गन्थ विस्तृत तथा दुर्बोध हैं, कुष्ट संक्षिप्त तथा दोषपूर्ण है, दूसरे कुष्ट ग्रन्थों में विषयान्तर की भी बहुत बातें हैं और वे कठिनाई से ही समझे जा सकते हैं, ऐते काव्य-रहत्य निर्दय से रहित अनेक गन्यों को सुनते सुनते मेरा मन ऊब गया है। अतः कृपाकर मुझे ऐसे शास्त्र का ज्ञान कराइए जो अत्यन्त लम्बा न हो, जिसमें अलंकार का सार हो।' तथा जो साधारण बुद्धियों के द्वारा भी गाय हो। वस्तुपाल की इस प्रकार की प्रार्थना सुनकर नरचन्द्रसरि ने अपने सुयोग्य शिष्य नरेन्द्रप्रभसूरि को उक्त प्रकार का गन्य रच्ने की आज्ञा दी। गुरू के आदेशानुसार नरेन्द्रप्रभसूरि ने वस्तुपाल की प्रसन्नता हेतु
1. दृष्टव्य - महामात्य वस्तुपाल का साहित्य मण्डल तथा संस्कृत साहित्य
में उसकी देन विभाग2, अध्याय 5, पृष्ठ 1024 2. अलं कारमहोदधि - प्रारंभिक प्रशस्ति, 1/17-18