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पद्मावती नगरी ही पद्मावती जाति के निकास का स्थान है। इसलिए इस दृष्टि से पवाया ग्राम पद्मावती पुरवालों के लिए विशेष महत्व की वस्तु है ।
6. तीर्थंकर महावीर स्मृति ग्रन्थ प्रकाशक जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर में प्रकाशित लेख 'गोपादौ देवपत्तने' के लेखक श्री हरिहरनिवास द्विवेदी लिखते हैं
पद्मावती पुरवाल अपना उद्गम ब्राह्मणों को बतलाते हैं। जैन जाति के आधुनिक विवेचकों को पद्मावती पुरवाल उपजाति के ब्राह्मण प्रसूत होने घोर आपत्ति है । परन्तु इतिहास पद्मावती पुरवालों में प्रचलित अनुश्रुति का समर्थन करता है ।
पद्मावती देवी
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त्रिभुज में रेखांकित तीसरी रेखा पद्मावती देवी की है। अतः इस पर थोड़ा प्रकाश डाला जाता है
पद्मावती पुरवाल समाज के कतिपय जिनालयों में पद्मावती देवी की प्रतिमा एक आलेनुमा वेदी में विराजमान है जिसका नित्यप्रति शृंगार होता है। जैनधर्म में यह एक महत्वपूर्ण घटना प्रसिद्ध है। भगवान पार्श्वनाथ दीक्षा के चार माह बाद दीक्षा वन में जाकर देवदारु वृक्ष के नीचे विराजमान हुए। वे सात दिन का योग लेकर ध्यानमग्न हो गये। तभी सम्बरदेव अपने विमान द्वारा आकाश मार्ग से जा रहा था । अकस्मात उसका विमान रुक गया। देव ने अपने विभंगावधि ज्ञान से देखा तो उसे अपने पूर्वभव का वैर स्मरण हो आया। वह क्रोध में फुंकारने लगा। उसने भीषण गर्जन - तर्जन करके प्रलयंकर वर्षा करना प्रारम्भ कर दिया। फिर उसने प्रचण्ड गर्जन करता हुआ पवन प्रवाहित किया। पवन इतना प्रबल वेग से बहने लगा, जिसमें वृक्ष, नगर, पर्वत तक उड़ गये। जब इतने पर भी पार्श्वनाथ ध्यान से विचलित नहीं हुए, तब वह अधिक क्रोधित हुआ और क्रोधित होकर नाना प्रकार के शस्त्रास्त्र चलाने लगा। वे शस्त्र तप के
पद्मावतीपुरवाल दिगम्बर जैन जाति का उद्भव और विकास
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